उस सोने की खदान की कहानी जिस पर बनी है KGF, भारत का 95% सोना उगलती थी KGF खदान

साल 2018 में रिलीज हुई फिल्म “केजीएफ: चैप्टर 1” को साउथ सिनेमा के साथ साथ हिंदी दर्शकों द्वारा काफी पसंद किया गया। वहीं अब “केजीएफ: चैप्टर 2” भी रिलीज होने जा रही है। 14 अप्रैल 2022 को यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज की जाएगी। इस फिल्म का ट्रेलर हाल ही में लॉन्च किया गया। जिसके बाद ट्रेलर यूट्यूब पर धमाल मचा रहा। वहीं सोशल मीडिया पर फिल्म को लेकर लगातार चर्चाएं हो रही हैं। इस फिल्म में साउथ सुपरस्टार यश के अलावा संजय दत्त, रवीना टंडन और प्रकाश राज जैसे दिग्गज सितारे नजर आएंगे।

आपको बता दें कि केजीएफ का फुल फॉर्म कोलार गोल्ड फील्ड्स (Kolar Gold Fields) है। इस जगह का अपना एक इतिहास है, जिस पर केजीएफ फिल्म बनाई गई है। जब साल 2018 में ब्लॉकबस्टर फिल्म केजीएफ रिलीज हुई थी तो इस फिल्म में हीरो यश का किरदार दर्शकों द्वारा खूब पसंद किया गया। ऐसे में लोगों में यह कहानी सच है या गलत? इसको जानने की उत्सुकता बहुत थी। तो आपको बता दें कि केजीएफ फिल्म की कहानी काफी हद तक सच है, जो आज हम आपको इस लेख के माध्यम से बताने वाले हैं

आपको बता दें कि ब्रिटिश सेना में एक सेवानिवृत्त सैनिक माइकल फिट्जगेराल्ड लोवेल ने बेंगलुरु छावनी को 1871 में अपना घर बना लिया। यह अभी अभी न्यूजीलैंड में मौर्य युद्ध से वापस आए। इनके लिए समय व्यतीत करना काफी मुश्किल हो रहा था। समय बिताने के लिए फ़िज़िएराल्ड पढ़ते हुए, उन्होंने 1804 में एशियाटिक जर्नल से 4 पेज का लेख पढ़ा, जिससे जन्म हुआ दुनिया के सबसे गहरे सोने के क्षेत्र कोलार गोल्ड फील्ड का।

आपको बता दें कि फिट्जगेराल्ड को गोल्ड वैली में दिलचस्पी न्यूजीलैंड में युद्ध के दौरान ही हो गई। जब उन्होंने 1799 एशियाटिक जर्नल में लेफ्टिनेंट जॉन वॉरेन के साथ एक लेख पढ़ा तो उनकी उत्सुकता जागी। श्रीरंगपटना में टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के बीच जबरदस्त युद्ध हुआ था, जिसमें टीपू सुल्तान को मार डाला गया था। बाद में 1799 में कोलार गोल्ड फील्ड के बारे में लेफ्टिनेंट जॉन वारेन ने सीखा। अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान की सारी संपत्ति मैसूर को सौंप दी। इसके साथ ही कॉलर को अंग्रेजों ने रख लिया। वॉरेन तब ब्रिटिश सेना में सेवारत थे। इसी वजह से उन्हें कोलार गोल्ड फील्ड के सर्वेक्षण की जिम्मेदारी मिली। कोलार में लोग हाथ से सोना खोद रहे थे, यह युद्ध में सुना गया।

जब वारेन ने यह चर्चा सुनी तो उसके बाद कर्नाटक के बेंगलुरु से 100 किलोमीटर दूर कोलार शहर के लिए वह रवाना हो गए और उन्होंने लोगों के लिए यह घोषणा की कि जो उनको सोना देगा, उसे इस स्थान से पुरस्कृत किया जाएगा। बस क्या था कुछ देर में ही कई ग्रामीण कीचड़ से भरी बैल गाड़ियों को लेकर पहुंचे। जब मिट्टी को साफ किया गया तो उसमें से सोने का पाउडर निकला। जिसके बाद उन्होंने एक रिपोर्ट जारी किया जिसमें वारेन ने लिखा हर 56 किलो मिट्टी से 1 ग्राम सोना निकाला जाता है और इतनी धीमी गति से काम करने से सोना तेजी से निकालना संभव नहीं हो पाएगा। इसलिए उन्होंने सलाह दी कि अधिक आधुनिक तरीके से सोना निकला जाए।

साल 1871 की बात है जब 67 साल पुरानी एक रिपोर्ट को पढ़ते हुए फिट्जगेराल्ड के द्वारा बहुत कम समय में बेंगलुरु से कोलार तक 100 किलोमीटर की दूरी की यात्रा की गई। जब उन्होंने अध्ययन किया तो उन्हें ऐसे स्थान मिले जहां से अधिक सोना निकल सके। उनके द्वारा 2 साल तक शोध किया गया, जिसके बाद फिट्जगेराल्ड ने 1873 में महाराजा को एक पत्र लिखकर खनन लाइसेंस मांगा। परंतु सरकार के द्वारा इसे सोने की बजाय कोयले की खदान की मंजूरी दी गई। 1875 में फिट्जगेराल्ड को कोलार में 20 साल के लिए खनन पट्टा दिया गया था, जिसमें शुरुआत हुई कोलार में स्वर्ण युग की।

आपको बता दें कि आधुनिक तकनीकी की मदद से सोना निकालने के लिए पैसे फिट्जगेराल्ड के पास नहीं थे। इसलिए 1877 में अन्य सैन्य साथियों, मेजर जरनल बेरेसफोर्ड, मैकेंज़ी, सर विलियम और कर्नल विलियम अर्थनॉट की मदद से उन्होंने द कोलार फाइनेंस कंपनी लिमिटेड नाम की एक सिंडिकेट गठन की। जिसने खनन पट्टे को पीछे छोड़ दिया। दुनिया के इंजीनियरों को बुलाया गया, खनन शाफ्ट को खोजने के लिए। हालांकि निवेशकों के दबाव में सिंडिकेट उन्नत तकनीकी के लिए जॉन टेलर एंड संस कंपनी तक पहुंच गया, जो कोलार गोल्ड फील्ड से जल्दी सोना निकाल सकता है। इसके साथ ही समस्या वैसी की वैसी ही बनी रही।

आपको बता दें कि आधुनिक मशीनरी से कोलार पूरी तरह से लैस था परंतु इनको चलाने के लिए बिजली की आवश्यकता थी। यह आधुनिक तकनीक के उपकरण बिना बिजली के व्यर्थ थे, जिसके बाद ब्रिटिश सरकार के द्वारा बिजली पैदा करने के लिए एशिया में दूसरा और भारत में पहला बिजली संयंत्र बनाया गया। 1900 में कावेरी नदी पर एक जल विद्युत संयंत्र बनवाया।

परंतु कुछ समय के पश्चात कोलार ही वह जगह थी, जहां मोमबत्ती को बल्ब से बदल दिया गया था। बिजली उस समय के दौरान अमीरों के लिए नहीं थी परंतु कोलार के हर घर में बिजली पहुंची। 1902 में कोलार के हर घर घर के अंदर बिजली पहुंच गई। जब बिजली संयंत्र की स्थापना हो गई तो उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने कोलार गोल्ड फील्ड्स ने जो सोना खनन किया था, उसे अपने कब्जे में ले लिया था।

दुनियाभर के लोगों और ब्रिटिश इंजीनियरों के लिए कोलार लिटिल इंग्लैंड बना। कई अंग्रेजों ने वहां पर अपने बंगले बनवा लिए क्योंकि कोलार की जलवायु ठंडी थी। ब्रिटिश माइनिंग कॉलोनी होने की वजह से केजीएफ को ब्रिटिश संस्कृति के आकार कब बनवाया गया। वहीं मिट्टी से सोना अलग करने के लिए पानी की आवश्यकता थी जिसके बाद एक कृतिम झील को ब्रिटिश सरकार ने बनवाया। भले ही कोलार बिजली-पानी, आधुनिकता से पूरी तरह से लैस था परंतु इसके बावजूद भी वहां पर रहने वाले मजदूरों के लिए यह नर्क जैसा ही था क्योंकि मजदूरों को बिना घंटे गिने ही काला श्रम करना पड़ता था।

आपको बता दें कि मजदूर और उनका परिवार खनन कॉलोनी में एक शेड के नीचे रहता था। उसमें चूहे ही चूहे थे। हर वर्ष 50000 चूहों को कोलार के मजदूर मारा करते थे। इतना ही नहीं बल्कि 55 डिग्री की गर्मी में सोने के खेत में मजदूर घंटों तक काम करते थे जिसकी वजह से कई मजदूरों ने अपनी जान भी गंवाई। जैसे जैसे सोने की आपूर्ति घटती चली गई वैसे-वैसे लोग कोलार को छोड़कर चले गए। भारत सरकार के द्वारा 1956 में यह फैसला लिया गया था कि केजीएफ के सोने से बाहर होने तक प्रत्येक सोने की खान पर कब्जा कर लिया जाना चाहिए।

हालांकि कोलार गोल्ड फील्ड को 2001 तक बनाए रखा गया था। बाद में 2001 में ही सोने की खुदाई करनी बंद कर दी। ऐसा बताया जाता है कि आज भी कोलार के भीतर बड़ी मात्रा में सोना छुपा हुआ है परंतु उस सोने को बाहर निकालने के लिए हजारों करोड़ रुपए की आवश्यकता पड़ेगी।